Sunday, May 1, 2011

सफ़ाई अभियान

सुना है शहर में सफ़ाई अभियान चला है,
पता नहीं , यह क्या बला है।
भला सफ़ाई भी किसी को बताने कि जरुरत है,
यह तो हम सभी की आदत है ।
मुझे देखिए मैं भी बहुत सफ़ाई पसंद हूँ ,
घर और स्वयं को चमकाता हूँ,
और बाहर फेंकता सारा गंद हूँ।
मेरे घर में आपको एक तिनका भी न मिलेगा
मुझ पर इल्जाम लगाने के लिए एक पत्ता तक न हिलेगा।
वो तो भैया , बाहर गली में कूड़ा पड़ा है
और नालियों का पानी सारा सड़ा है,
कालोनी में कूड़ा , पर घर तो साफ़ है।
सफ़ाई कर्मचारी आते हैं और कहते हैं कि कूड़ा बाहर मत फेंकिए।
यदि कूड़ा बाहर न फेंके तो क्या इन्हें मुफ्त की पगार दें,
इनके आलसीपन को हवा दें।
नारों से सफ़ाई अभियान न सफ़ल होगा,
सख्ती से नियम लागू करना होगा।

हैं समझदार, स्वयं सोचिए आप।







Tuesday, April 26, 2011

क्या सोचता होगा स्टेशन





क्या सोचता होगा स्टेशन ?जब सभी रेलगाड़िया चली हैं जाती।
रह जाता सूना-सूना अपने अकेलेपन के साथ ।
सारे यात्री हो जाते रेलगाड़ी में सवार ,
छोड़ने आए सब चले जाते अपने घर-बार ,
उतरते यात्री नाचते-कूदते चले अपने सामान के साथ ।
फिर आई सुबह तीन बजे की बात वह करता था इंतजार लोगों के शोर का ,
थोड़ी देर बाद ही हो गई शोर की आस एक और छुक- छुक करती उम्मीद पहुंची उसके पास ।
फिर चली रेलगाड़ी लेकर लोगों को अपने साथ ।
नाचते- गाते ,सोते लोग छोड़ गए सूना-सूना स्टेशन ,
वह देखता है फिर किसी रेलगाड़ी के आने की राह।

विभोर

Wednesday, February 23, 2011

मेरे दादा-दादी



दादी मेरी सबसे न्यारी बातें करती प्यारी-प्यारी।
दादा मेरे इतने अच्छे प्यार करते उन्हें सब बच्चे।
पापा- मम्मी ऑफिस जाते दादा-दादी लाड लड़ाते।
अच्छी- अच्छी बातें बताते नए-पुराने किस्से सुनाते।
कभी परी लोक ले जाते तो कभी आजादी के दीवानों से मिलाते।
दादी मेरे लिए लड्डू बनाती दादा मुझे जलेबी खिलाते।
हर क्षण संस्कारों से पहचान कराते तभी तो हम अच्छे इंसान हैं बन पाते।
यदि हम उनके अनुभवों को जीवन में अपनाएं तो सदा आगे बढते हुए अपनी मंजिल पायें।
उनके होने से हैं घर-आँगन में बहारें इसीलिए तो मुझे अपने दादा-दादी हैं प्यारे।

Wednesday, January 12, 2011

बेटी

मैं दो बेटों की माँ बनी, एक बेटी की कमी अखरती रही।
बेटे के विवाह के बाद सुंदर सी बहू आई बेटी बन कर।
लगा नहीं कि वो कहीं और से आई ,लग़ा कि वो मेरी ही बेटी है।
कैसे बेटियाँ कहीं पैदा हो कर कहीं की हो जाती हैं ,
अपनें माँ-बाबा के नाम को चार चाँद लगाती हैं।
हाँ ,मेरी बहू मेरी बेटी है।

टूटते रिश्ते


क्या रिश्ते इक पल में बिखर जातें हैं,
क्या उन्हें जोड़ने वाला धागा इतना कच्चा है ,
इक झटका लगते ही वे बिखर जातें हैं।
नहीं सबमें दंभ भरा है ,झूठा अभिमान ,झूठी शान ।
धागा तो प्रयास करता है उन्हें फिर से जोड़ने का ,
लेकिन अपनी रौ में वे इतने आगे निकल गये हैं
कि उन्हें अपने टूटे रिश्तों की सिसकियां भी सुनाईं नहीं देतीं ।